सबब कुछ भी नहीं जब , किसलिए
फिर बेवजह बोलूँ ?
तुम्हीं बतलाओ कैसे हार को
अपनी फ़तह बोलूँ ?
वो इक जलता हुआ सूरज है गर्मी
का जो झुलसाता ,
उसे कैसे मैं आइसक्रीम कह
दूँ या कि मह बोलूँ ?
हमेशा मैं वही बोला जो सुनना
चाहते थे तुम ,
जो कहना चाहता हूँ - आज दिल बोले , मैं वह बोलूँ ॥
बख़ूबी जानता हूँ चाहता है
वो मुझे लेकिन ,
मैं उससे – दूसरे को चाहता
हूँ , किस तरह बोलूँ ?
मुझे मालूम है , है रेगमाल एहसास उसका पर ,
मैं बेमक़्सद न उसको काँच की
चिकनी सतह बोलूँ ॥
(
बेवजह = अकारण ,मह
= चाँद , फ़तह = जीत , रेगमाल = एक अत्यंत
खुरदुरा कागज़ , बेमक़्सद= निरुद्देश्य )
-डॉ. हीरालाल
प्रजापति
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