Friday, June 24, 2016

ग़ज़ल : 196 - पछाड़ बन बैठे ॥




  तेरी चाहत में यार तिल से ताड़ बन बैठे ।।
   सच में तुलसी से एक वट का झाड़ बन बैठे ।।1।।
   ईंट-पत्थर की थी दिवार ऊँची-मोटी बस ,
   तेरे आने से खिड़की औ किवाड़ बन बैठे ।।2।।
   चिड़चिड़ाहट के बुत थे और ग़ुस्सेवर थे हम ,
   तूने चाहा तो धीरे-धीरे लाड़ बन बैठे ।।3।।
   तुझको छुप-छुप दरार में से झाँकने वाले ,
   आज तेरा ही पर्दा , ओट , आड़ बन बैठे ।।3।।
   ख़ुद की जीते जी जो जुगत न बन सके तेरी ,
   तेरे मक़्सद पे जान दे जुगाड़ बन बैठे ।।4।।
   बस मोहब्बत की कुश्तियों में सब रक़ीबों को ,
   करके छोड़े जो चित ही वो पछाड़ बन बैठे ।।5।।
   दुश्मनों को तेरे जलाने - भूनने को हम ,
   गाह तंदूर गाह एक भाड़ बन बैठे ।।6।।
  
 ( बुत = प्रतिमा , ग़ुस्सेवर = क्रोधी , रक़ीबों = अपनी प्रेमिका के       प्रेमी  , गाह = कभी , भाड़ = अनाज भूनने की भट्टी )

            -डॉ. हीरालाल प्रजापति

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