माथे बीच लगी कालिख ,
छूने भर से अंधा बोले ,
मुझको तो यह हल्दी औ'
चंदन की रोली लगती है ।।
चपटी से भी चपटी कोई
ईंट बहुत ही दूरी से ,
तेज़ नज़र को भी शायद
पूछो तो गोली लगती है ।।
अक़्ल ज़रा सी जिनको ऊपर
वाले ने कुछ कम बख़्शी ;
आँखें दीं लेकिन उनमें ना
देखने की कुछ दम बख़्शी ;
ऐसों को हैरत क्या कंधों
पर चलने वाली अर्थी ,
यदि ख़ामोशी से बढ़ती
दुल्हन की डोली लगती है ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
4 comments:
Exillent
धन्यवाद । अनीता सैनी जी ।
रीति रिवाज वाली आंखे बंद रहती है
और लोग उसी लीक को सदियों से पीटते आ रहे हूं बिना कुछ सवाल उठाए।
बहुत खूबसूरत रचना। लाजवाब वाली।
मेरी नई पोस्ट पर आपका स्वागत है 👉👉 लोग बोले है बुरा लगता है
धन्यवाद । रोहितास जी ।
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