Thursday, October 17, 2019

मुक्तक : 927 - डोली


माथे बीच लगी कालिख ,
छूने भर से अंधा बोले ,
मुझको तो यह हल्दी औ' 
चंदन की रोली लगती है ।।
चपटी से भी चपटी कोई 
ईंट बहुत ही दूरी से ,
तेज़ नज़र को भी शायद 
पूछो तो गोली लगती है ।।
अक़्ल ज़रा सी जिनको ऊपर 
वाले ने कुछ कम बख़्शी ;
आँखें दीं लेकिन उनमें ना 
देखने की कुछ दम बख़्शी ;
ऐसों को हैरत क्या कंधों 
पर चलने वाली अर्थी ,
यदि ख़ामोशी से बढ़ती 
दुल्हन की डोली लगती है ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

4 comments:

Unknown said...

Exillent

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद । अनीता सैनी जी ।

Rohitas Ghorela said...

रीति रिवाज वाली आंखे बंद रहती है
और लोग उसी लीक को सदियों से पीटते आ रहे हूं बिना कुछ सवाल उठाए।
बहुत खूबसूरत रचना। लाजवाब वाली।
मेरी नई पोस्ट पर आपका स्वागत है 👉👉  लोग बोले है बुरा लगता है

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद । रोहितास जी ।

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...