सफ़र कर आ रहे हैं जो समंदर का महीनों से ;
किनारे आ के भी उतरें न अब क्यों वो सफ़ीनों से
॥
यक़ायक़ क्या हुआ जिनके लगे रहते थे पीछे ही ;
छुड़ाते दिख रहे पीछा वही अब उन हसीनों से ॥
हुए वो दिन हवा जब बाज सी नज़रें वो रखते थे
;
उन्हें दिखता नहीं अब पास का भी दूरबीनों से
॥
कि जो गुमनाम होते हैं क्या वो इंसाँ नहीं होते
?
सवाल इक पूछना है मुझको सारे नामचीनों से ॥
मोहब्बत से चले थे पालने नागों को बाँहों में
;
फ़क़त दो दिन में डस मारा इन्होंने आस्तीनों से
॥
मोहब्बत के बराबर वज़्न कोई भी नहीं होता ;
न
सीमोज़र से , दौलत से , न ये तुलती नगीनों से ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
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