Thursday, February 4, 2016

मुक्तक : 803 - ख़ून के आँसू



नर्म चिकनाई को पैरों , से कुचलते थे कभी जो ,
खुरदुरे पत्थर पे अपने , आज रो-रो गाल घिसते ।।
तोड़ते थे , फोड़ते थे , जो हथौड़े से सभी को ,
वक़्त की वो चक्कियों में , मिर्च से चुपचाप पिसते ।।
जो ठुमकती चलतीं कल-कल , बहतीं नदियाँ रोककर कल ,
पर्वतों से बाँधते थे , बाँध ताली ठोककर कल ;
वो ही गहरी खाइयों में , आज ग़म की गिर पड़े तो ,
उनकी आँखों से मुसल्सल , ख़ून के आँसू हैं रिसते ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

2 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (06-02-2016) को "घिर आए हैं ख्वाब" (चर्चा अंक-2244) पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

बहुत बहुत शुक्रिया ! शास्त्री जी !

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...