Sunday, February 7, 2016

मुक्तक : 805 - मेरे घर अब नहीं आते ॥




बुलाए बिन चले आते थे वो पर अब नहीं आते ॥
निमंत्रण भेजने पर भी मेरे घर अब नहीं आते ॥
मैं पहले की तरह दाने बिखेरे रोज़ बैठूँ पर ,
न जाने क्यों मेरी छत पर कबूतर अब नहीं आते ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

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मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...