Saturday, August 24, 2024

मुक्तक

 











नहीं होता कमीनों में कमीनापन वो जो होता ,

ज़माने के चुनिंदा और मुट्ठी भर शरीफ़ों में ।।

जवानों में भी जो बातें अकेले में नहीं होतीं ,

तुम्हें मालूम क्या ? होतीं हैं क्या बातें ख़रीफ़ों में ।।

न लग जाए नज़र ; कितने ही ऐसा सोचकर अक्सर ;

ख़ुशी में भी दिखें यों ज्यों अभी बिजली गिरी उनपर ;

मैं दावा कर रहा हूॅं ; हाॅं ! भरा होता है बेहद ग़म ,

बला के मस्ख़रों में भी , कई यों ही ज़रीफ़ों में ।।

-डॉ. हीरालाल प्रजापति

( मस्ख़रा=काॅमेडियन/ख़रीफ़=बूढ़ा /ज़रीफ़=खुशमिज़ाज )


Wednesday, August 21, 2024

ग़ज़ल

 











मेरा पागल हो ख़ुशी से झूम जाना हो ।।

जब भी रेगिस्तान में बारिश का आना हो ।।

वैसे चाहे कोई गाए या न गाए पर ,

हाॅं ! नहाते वक़्त सबका गुनगुनाना हो ।।

मैं ज़ुबाॅं अपनी न काटूॅं , होंठ भर सी लूॅं ,

जब किसी को कुछ नहीं मुझको बताना हो ।।

सर झुका चुप उनके आगे बैठ जाता बस ,

हाल ए दिल अपना उन्हें जब भी सुनाना हो ।।

मैं मुसीबत में नहीं लेता मदद उससे ,

मुझसे अपने दोस्त का कब आज़माना हो ?

लोग कहते हैं कि अक्सर टूट जाते हैं ,

इसलिए मुझसे न ख़्वाबों का सजाना हो ।।

राह चलते लूट लूॅं मैं ऑंख का काजल ,

लेकिन उनके दिल का मुझसे कब चुराना हो ?

-डाॅ. हीरालाल प्रजापति 


Monday, August 19, 2024

ग़ज़ल

 











जाने क्यों ? पर बना लिया मैंने ।।

ख़ुदको पत्थर बना लिया मैंने ।।

क्या कहूॅं ? हिर्स में उन्हें अपने ,

पाॅंव से सर बना लिया मैंने ।।

इस क़दर लाज़िमी था सो ख़ुदको ,

गिरवी धर घर बना लिया मैंने ।।

नींद में एक सख़्त पत्थर को ,

नर्म बिस्तर बना लिया मैंने ।।

चाहता था बनूॅं क़लम ही पर ,

ख़ुदको ख़ंजर बना लिया मैंने ।।

उसको पाना था इसलिए ख़ुदको ,

उससे बेहतर बना लिया मैंने ।।

तीर ओ तलवार को मिटा यों ही ,

एक ज़ेवर बना लिया मैंने ।।

जब न इंसाॅं मिले तो साॅंपों को ,

दोस्त अक्सर बना लिया मैंने ।।

एक बेरोज़गार मालिक को ,

अपना नौकर बना लिया मैंने ।।

जल्दबाज़ी में ख़ुद से बहके को ,

अपना रहबर बना लिया मैंने ।।

-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Saturday, August 17, 2024

मुक्तक











मेरे होकर मोहब्बत में कभी पागल नहीं आए ।।

न धुल पाए किसी पानी से वो काजल नहीं लाए ।।

है कबसे मौसम ए ग़म मेरे दिल में छा रहा फिर भी ,

अभी तक ऑंसुओं के ऑंख में बादल नहीं छाए ?

-डाॅ. हीरालाल प्रजापति 




Monday, August 12, 2024

मुक्तक

 











मैं तकता रहा राह उसकी बताई ।।

बुलाया था उसने मगर ख़ुद न आई ।।

कई शामें अपनी गयीं इस तरह भी ,

न पीयी गई और न उसने पिलाई ।।

-डाॅ. हीरालाल प्रजापति 

Friday, August 9, 2024

ग़ज़ल

 











कभी मैं ऊगता ; ढलता दिखाई देता हूॅं ।।

कभी थमा भी फिसलता दिखाई देता हूॅं।।

कुछ इस क़दर है मुझे भागदौड़ की आदत ,

खड़ा हुआ भी मैं चलता दिखाई देता हूॅं ।।

बची न मुझमें कहीं आग अब तो राख हूॅं मैं ,

भले ही शक्ल से जलता दिखाई देता हूॅं ।।

चला गया वो मेरा हाथ छोड़कर जबसे ,

मैं तबसे हाथ ही मलता दिखाई देता हूॅं ।।

मैं जल रहा हूॅं , मैं पत्थर ही हो रहा हूॅं पर , 

सभी को मोम पिघलता दिखाई देता हूॅं ।।

हूॅं जिनकी ऑंख का काॅंटा न जाने क्यों सबको ,

उन्हीं के दिल में मैं पलता दिखाई देता हूॅं ।।

मैं मारा-मारा फिरूॅं लेकिन उनको खा-पीकर ,

ख़ुशी से रोज़ टहलता दिखाई देता हूॅं ।।

-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Sunday, August 4, 2024

ग़ज़ल

 

सभी के साथ में उस दिन , सताने वो भी आए थे ।।
हमें मक़्तूल से क़ातिल , बनाने वो भी आए थे ।।
न जाने क्यों ; मगर जो चाहते थे हम मरेंगे कब ?
हमारी लाश पर ऑंसू , बहाने वो भी आए थे ।।
कई दुश्मन हमें बर्बाद करने पर तुले थे पर ,
बदलकर भेस को अपने , मिटाने वो भी आए थे ।।
फ़क़त हम ही न पहुॅंचे थे क़रीब उनके न आने को ,
हमारे पास आकर फिर , न जाने वो भी आए थे ।।
हमारे जख़्मों पे दुनिया तो लाई थी नमक मलने ;
अरे ! मरहम की जा मिर्ची , लगाने वो भी आए थे ।।
हमारे दिल को भूना सबने मिलकर , ग़म न माशा भर ,
मलाल इसका है मन-मन भर , जलाने वो भी आए थे ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति





मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...