कँवल जैसा खिला चेहरा वो कब दहशतज़दा होगा ?
कब उस दुश्मन के पीछे एक पड़ा वहशी ददा होगा ?
हमेशा मुस्कुराता है , सदा हँसता ही रहता है ,
वो दिन कब आएगा मेरा अदू जब ग़मज़दा होगा ?
कोई कब तक बचा रक्खेगा ख़ुद को हाय ! पीने से ,
किसी के घर के आगे ही खुला जब मैक़दा होगा ?
लतीफ़ों पर भी वह कैसे हँसेगा जिसकी क़िस्मत में ,
शुरू से लेके आख़िर तक अगर रोना बदा होगा ?
बचा कुछ भी न अब जब पास मेरे लुट गया सब कुछ ,
लिया मैंने जो उससे है वो फिर कैसे अदा होगा ?
ज़ुबाँ सचमुच कटालूँ गर ज़ुबाँ दे तू मुझे ; कल से ,
मेरी ख़ामोशियों की उम्र भर तू ही सदा होगा ।।
ज़मानत क्या कि मैं सब मार दूँ दुनिया के भिखमंगे ,
ज़माने में न फिर कोई नया पैदा गदा होगा ?
( दहशतज़दा = आतंकित , ददा = हिंसक दरिंदा , मैक़दा = शराबख़ाना , सदा = पुकार , आवाज़ , गदा = भिखारी )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
2 comments:
वाह वाह
हर एक शेर नायाब है।
यहाँ स्वागत है 👉👉 कविता
धन्यवाद । रोहितास जी ।
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