Saturday, July 27, 2024

मुक्तक

 


ताज़े को फेंक खाते हम लुत्फ़ लेके बासा ।।

बारिश में भीगते पर रखते हैं ख़ुद को प्यासा ।।

कोई कमी नहीं है , ये तो है अपनी मर्ज़ी ,

सब ख़ुद लुटाके फिरते हाथों में पकड़े कासा ।।

-डाॅ. हीरालाल प्रजापति 

Friday, July 26, 2024

ग़ज़ल

 


डर है मिट जाऍं न पड़कर सख़्त ग़ुर्बत में ।।
इस क़दर बेकार हैं ; हैं इतनी फ़ुर्सत में ।।
हम मोहब्बत में बने थे , इसमें क्या शक़ है ?
पर मिटे भी हैं तो पड़कर हम मोहब्बत में ।।
सख़्त प्यासे हों तो आता है मज़ा जितना -
पानी पीने में ; न आता है वो शर्बत में ।।
हूॅं तो मैं तेरी मोहब्बत में पड़ा लेकिन ,
देखकर लगता मुझे जैसे हूॅं वहशत में ।।
बा-ख़ुदा मैं कब था खुशबूदार फूलों सा ,
अब महकने लग गया हूॅं तेरी सोहबत में ।।
सच कहूॅं तो मैं था कब लायक तुम्हारे पर ,
तुम लिखे थे रब के हाथों मेरी क़िस्मत में ।।
तब भी भाती थी मुझे तनहाई जब तुम थे ,
अब न तुम तब भी मज़ा क्यों आए ख़ल्वत में ?
-डाॅ. हीरालाल प्रजापति 

Tuesday, July 23, 2024

ग़ज़ल

 











मुझे भर भिगोने तू बारिश न आना ।।

ज़माने को भी तर-ब-तर करते जाना ।।

मुझे भी पता है तेरे दिल में मेरा ,

न था और न है और न होगा ठिकाना ।।

हो कितनी भी फ़ुर्सत अगर मैं बुलाऊॅं ,

न चाहे तू मुझको तो अब फिर न आना ।।

अभी तुझको पाने का सोचा नहीं है ,

यूॅं ही तुझको पा लूॅंगा गर मैंने ठाना ।।

तेरे वास्ते मुझको मुश्किल न होगा ,

अरे ! चाॅंद-तारों को भी तोड़ लाना ।।

उसे मारकर अब मेरी ज़िद है मुझको ,

ख़ुद अपने ही हाथों अभी ज़ह्र खाना ।।

उसे देखना भी गवारा नहीं अब ,

कभी आर्ज़ू थी उसी उसको पाना ।।

तुम्हीं ज़िंदगी थे तुम्हीं चल दिए अब ,

मुझे ख़ुद को मरने से होगा बचाना ।।

-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Sunday, July 14, 2024

ग़ज़ल

 


कहा करती हैं जो ऑंखें हमारे लब नहीं कहते ।।

बहुत खुलते हैं लेकिन कोई सूरत सब नहीं कहते ।।

लिखा करते थे ताबड़तोड़ जब लिखना न आता था ,

ग़ज़ल होती है क्या समझे हैं जब से अब नहीं कहते ।।

कहा करते हो तुम बेशक़ हमेशा बात अच्छी ही ,

मगर कहना हो वो जिस वक़्त उसको तब नहीं कहते ।।

कहा करते हैं जो बेढब जिसे देखो उसे बेढब ,

वही आईने से भी ख़ुदको टुक बेढब नहीं कहते ।।

कई हैं अपने पत्थर के सनम को जो ख़ुदा बोलें ,

मगर माॅं-बाप को इक बार अपना रब नहीं कहते ।।

वो तब-तब मान जाते हैं बुरा उनकी बुरी सूरत ,

जिसे हम चौदहवीं के चाॅंद सी जब-जब नहीं कहते ।।

वो कहते हैं कि हम उनको कहें अपना ख़ुदा मुॅंह पर ,

जिन्हें हम दिल में शैतान-ओ-बला कब-कब नहीं कहते ?

-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Thursday, July 11, 2024

ग़ज़ल

 हैं इक वो , पीक जिनको , ख़ून की उल्टी दिखाई दे ।।

यहाॅं मुझको , लहू भी , साॅस या चटनी दिखाई दे ।।

हरा चश्मा पहनने की , मुझे इतनी रही आदत ,

कि हल्दी भी मुझे अब तो , हरी मिर्ची दिखाई दे ।।

मोहब्बत में , मैं तुलसीदास से , कुछ कम नहीं पड़ता ,

कहूॅं कैसे कि नागिन भी , मुझे रस्सी दिखाई दे ?

मैं उसका क़द कुछ ऐसे नापता हूॅं अपनी ऑंखों से ,

कि वो बौनी , मुझे मुझसे , कुछ ऊॅंची ही दिखाई दे ।।

मैं भिड़ जाता हूॅं , अपने से भी ताक़तवर से , जब मुझको ,

कभी ग़ुस्से में , भूखी शेरनी , बकरी दिखाई दे ।।

भरा हो पेट , तो लड्डू भी , मिट्टी का लगे लौंदा ,

रहूॅं भूखा , तो हर गोलाई , इक रोटी दिखाई दे ।।

अमूमन सबको , माशूक़ा में , दिखता है ख़ुदा अपना ,

मुझे क्यों , अपनी महबूबा में , बस लड़की दिखाई दे ?

-डाॅ. हीरालाल प्रजापति 

( पीक=पान का लाल थूक / साॅस=टोमेटो केचप ,लाल चटनी / अमूमन=प्रायः )

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...