हाय मंसूबा नहीं इक अब तलक पूरा हुआ ।।1।।
जबकि अपनी उम्र का आधा शतक पूरा हुआ ।।2।।
क्या नहीं हमने किया मंज़िल को पाने वास्ते ।
रौंद डाले काँटों , अंगारों भरे सब रास्ते ।
कुछ ने कम मेहनत में भी है पा लिया अपना मुक़ाम ।
कुछ ने बैठे - बैठे ही हथिया लिया अपना मुक़ाम ।।
और इक हम हैं कि जिनका बिन रुके लंबा सफ़र ,
धीरे - धीरे रेंग कर , ना चल लपक पूरा हुआ ।।3।।
हाय मंसूबा नहीं इक अब तलक पूरा हुआ ।।
जबकि अपनी उम्र का आधा शतक पूरा हुआ ।।
हमने जिस दिन से कफ़न को बेचना चालू किया ।
ठीक उसी दिन से सभी लोगों ने मरना तज दिया ।
हाथ उनके आइने अंधों को सारे बिक गए ।
और कंघे भी निपट गंजों को सारे बिक गए ।
ख़्वाब उनका सोते-सोते हो गया सच और इधर ,
आँख खोलेे ना सतत पलकें झपक पूरा हुआ ।।4।।
हाय मंसूबा नहीं इक अब तलक पूरा हुआ ।।
जबकि अपनी उम्र का आधा शतक पूरा हुआ ।।
जाने कैसी-कैसी तदबीरें लगाते हम रहे ।
हर तरह की सोच-तरकीबें लगाते हम रहे ।
काम से कब हमने जी अपना चुराया था मगर ।
बल्कि ख़ुद को डूब कर उसमें भुलाया था मगर ।
काम सब के नाचते-गाते हुए सब बन गए ,
अपना इक भी हँसते-हँसते ना फफक पूरा हुआ ।।5।।
हाय मंसूबा नहीं इक अब तलक पूरा हुआ ।।
जबकि अपनी उम्र का आधा शतक पूरा हुआ ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
2 comments:
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (11-09-2019) को "मजहब की बुनियाद" (चर्चा अंक- 3455) पर भी होगी।--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत धन्यवाद , शास्त्री जी ।
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