Sunday, September 8, 2019

मुक्तक : 917 - बिल


जब कभी तू हर इक शख़्स का ख़्वाब थी ,
तू मेरा भी थी मक़्सद , थी मंज़िल कभी ।।
आशिक़ों की तेरे जब बड़ी फ़ौज थी ,
उसमें चुपके से मैं भी था शामिल कभी ।।
तू न माने ज़माने के आगे तो क्या ,
है हक़ीक़त मगर तुझको सारी पता ,
मेरे दिल में तेरी इक बड़ी माँद थी ,
तेरे दिल में था मेरा भी इक बिल कभी ।। 
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

5 comments:

अजय कुमार झा said...

बहुत ही बढ़िया सर बस पाठ का कर पृष्ठ का रंग संयोजन हल्का और गाढ़े का रखें दोनों एक सा होने से पढ़ने में दिक्कत आती है

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (10-09-2019) को     "स्वर-व्यञ्जन ही तो है जीवन"  (चर्चा अंक- 3454)  पर भी होगी।--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद । अजय कुमार झा जी । अवश्य.....

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद । शास्त्री जी ।

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद । मन की वीणा ।

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...