Monday, October 31, 2016

ग़ज़ल : 218 - जंगलों की आग बन जा



उनके दिल में कर न तू बसने की तैयारी ।।
उनकी नज़रों में कोई पहले ही है तारी ।।1।।
जंगलों की आग बन जा या तू बड़वानल ,
वो तुझे समझेंगे फिर भी सिर्फ़ चिंगारी ।।2।।
इससे बचके रहना ही इसका इलाज होता ,
मत लगा दिल को मोहब्बत जैसी बीमारी ।।3।।
रख खुली खिड़की औ रोशनदान वरना दम -
घोंट के रख देगी तेरा चार दीवारी ।।4।।
रह्न रख दे अपनी सारी मिल्कियत लेकिन ,
छोड़ना मत क़र्ज़ की ख़ातिर तू खुद्दारी ।।5।।
तेरी मर्ज़ी कर ले अपने साथ तू धोख़ा ,
मत कभी अपने वतन से करना ग़द्दारी ।।6।।
साथ उनके मौत सिर पर ज़ुल्फ जैसी थी ,
उनके बिन तो ज़िंदगी भी बोझ है भारी ।।7।।
( तारी = छाया हुआ ,बड़वानल = समुद्र के अंदर जलती हुई आग ,रह्न = गिरवी ,मिल्कियत = धन-संपत्ति ,खुद्दारी = स्वाभिमान ,ज़ुल्फ = केश , बाल )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Wednesday, October 26, 2016

*मुक्त-मुक्तक : 865 - उन आँखों पे पड़ी नक़ाबें हैं ॥



पढ़ो तो फ़लसफे की दो अहम किताबें हैं ॥
जो पी सको तो ये न आब ; ये शराबें हैं ॥
मगर क़िले के बंद सद्र दर सी पलकों की ;
अभी बड़ी उन आँखों पे पड़ी नक़ाबें हैं ॥
 ( फ़लसफ़ा = दर्शन ,अहम = महत्वपूर्ण ,आब = पानी ,सद्र दर = मुख्य दरवाजा ,नक़ाबें = पर्दा )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Saturday, October 22, 2016

*मुक्त-मुक्तक : 864 - मैं तेरी राह तके बैठा हूँ ॥



रात–दिन इस ही जगह पर न थके बैठा हूँ ॥
कब से अपलक मैं तेरी राह तके बैठा हूँ ॥
चलके मत आ कि बस उड़के ही चला आ आगे ,
तेरे दीदार का प्यासा न छके बैठा हूँ ॥
( तके = देखते हुए , दीदार का = दर्शन का , छके = तृप्त )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Sunday, October 16, 2016

*मुक्त-मुक्तक : 863 - दिल की बात ?



दो-चार-दस न बीस साल बल्कि ताहयात ॥
करवट बदल-बदल के,जाग-जाग सारी रात ॥
समझोगे कैसे तुम दिमाग़दारों ख़ब्त में ;
मैंने तो की है शायरी में सिर्फ़ दिल की बात ?
( ताहयात = सारा जीवन , ख़ब्त = पागलपन )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Thursday, October 6, 2016

*मुक्त-मुक्तक : 862 - बाग़ ही बाग़ हैं



रेगज़ारों में भी बरसात की फुहारें हैं ॥
बाग़ ही बाग़ हैं फूलों की रहगुज़ारें हैं ॥
जब थीं आँखें थे सुलगते हुए सभी मंज़र ,
जब से अंधे हैं हुए हर तरफ़ बहारें हैं ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Saturday, October 1, 2016

ग़ज़ल : 217 - नहीं कोई हाथों में रखता है ' हीरा '



कि सिर फोड़कर या कि पैरों में पड़कर ।।
मुक़द्दर से जीता यहाँ कौन लड़कर ?1।।
जिन्हें मिलना है वो भी मिलकर रहेंगे ,
बिछड़ना है जिनको रहेंगे बिछड़कर ।।2।।
हमेशा नहीं रहते क़ाबिज़ वहाँ पर ,
गिरें शाख़ से पत्ते पतझड़ में झड़कर ।।3।।
रहोगे अगर रेगमालों में फिर तो ,
किसी ना किसी दिन रहोगे रगड़कर ।।4।।
नदी की तरह सीख ही लेना बहना ,
या पोखर के जैसे ही रह जाना सड़कर ।।5।।
कि अपने हों जितने वही अपनी दुनिया ,
लिहाज़ा न अपनों से रहना अकड़कर ।।6।।
वो क्यों छटपटा छूटने को हो आतुर ,
मोहब्बत ने जिसको रखा हो जकड़कर ?7।।
नहीं कोई हाथों में रखता है ' हीरा ',
वो जँचता है दरअस्ल ज़ेवर में जड़कर ।।8।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...