■ चेतावनी : इस वेबसाइट पर प्रकाशित मेरी समस्त रचनाएँ पूर्णतः मौलिक हैं एवं इन पर मेरा स्वत्वाधिकार एवं प्रतिलिप्याधिकार ℗ & © है अतः किसी भी रचना को मेरी लिखित अनुमति के बिना किसी भी माध्यम में किसी भी प्रकार से प्रकाशित करना पूर्णतः ग़ैर क़ानूनी होगा । रचनाओं के साथ संलग्न चित्र स्वरचित / google search से साभार । -डॉ. हीरालाल प्रजापति
Monday, September 26, 2016
Saturday, September 24, 2016
Sunday, September 18, 2016
*मुक्त-मुक्तक : 859 - दुश्मन की है तारीफ़
मेरी हर तक्लीफ़ हर मुश्किल का यारों यक-ब-यक ,
उसने मेरे सामने हल चुटकियों में धर दिया ।।
आज उस दुश्मन की है तारीफ़ का मंशा बहुत ,
काम जिसने आज जानी दोस्त वाला कर दिया ।।
थी बहुत जिददो जहद थी कशमकश मैं क्या करूँ ?
सोचता रहता था बस ; फाँसी चढ़ूँ या कट मरूँ ?
जानता था ख़ुदकुशी करना है मुझको इसलिए ;
उसने आकर मेरे मुँह में जह्र लाकर भर दिया ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Wednesday, September 14, 2016
ग़ज़ल : 216 - काश कोई कमाल हो जाए ॥
काश कोई कमाल हो जाए ।।
अम्न दिल में बहाल हो जाए ।।1।।
गर वो सबके जवाब देता है ;
एक मेरा सवाल हो जाए ।।2।।
जब नहीं खोदने को कुछ होता ;
नख ही मेरा कुदाल हो जाए ।।3।।
कम से कम ग़म में वाइज़ों को भी ;
बादानोशी हलाल हो जाए ।।4।।
ख़ुद को भी वो मिटा के रख दे गर ;
सिर्फ़ ग़ुस्से से लाल हो जाए ।।5।।
उसके जाते ही एक बिन माँ के ;
मेरा बच्चे सा हाल हो जाए ।।6।।
ज़ोरावर हैं वो कछुए जो सोचें ;
उनकी चीते सी चाल हो जाए ।।7।।
इक कमाल इस तरह भी हो मेरा ;
तीर ही मेरी ढाल हो जाए ।।8।।
है ये हसरत तमाम बोसों की ;
उनको तू होंठ-गाल हो जाए ।।9।।
इस तरह से मरूँ कि दुनिया में ;
मेरा मरना मिसाल हो जाए ।।10।।
अपने कुछ सोचते हैं अपनों का ;
कैसे जीना मुहाल हो जाए ।।11।।
बच भी सकता है वो अगर उसकी ;
प्यार से देखभाल हो जाए ।।12।।
झूल लेना तुम उसपे जी भर कर ;
जब वो टहनी से डाल हो जाए ।।13।।
ठण्ड में कड़कड़ाती वो मेरा ;
आर्ज़ू है कि शॉल हो जाए ।।14।।
( वाइज़ों = धर्मोपदेशकों ,बादानोशी = शराबखोरी , ज़ोरावर = बलवान , बोसों = चुम्मों , आर्ज़ू = इच्छा )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Sunday, September 11, 2016
ग़ज़ल : 215 - दे सका ना खिलौने
दे सका ना खिलौने रे बच्चों को मैं ॥
अपने नन्हें खिलौनों से बच्चों को मैं ॥
चाहता था कि दूँ चाँद-तारे उन्हें ,
हाय ! बस दे सका ढेले बच्चों को मैं ॥
माँगते थे वो रोटी तो देता रहा ,
मन के लड्डू सदा भूखे बच्चों को मैं ॥
पीटता था बुरों को कोई ग़म नहीं ,
डाँटता क्यों रहा अच्छे बच्चों को मैं ?
सोचता था कि बच्चे हरिश्चन्द्र हों ,
मानता सच रहा झूठे बच्चों को मैं ॥
इक पिता था समझता रहा फूल ही ,
धुर नुकीले , कड़े , पैने बच्चों को मैं ॥
रो दिया देखकर पेट को पालने ,
ईंट-गारे को सर ढोते बच्चों को मैं ॥
घर चलाते हैं बचपन से ही बन बड़े ,
बाप बोला करूँ ऐसे बच्चों को मैं ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Saturday, September 10, 2016
ग़ज़ल : 214 - हैं अभी दीपक
हैं अभी दीपक ; कभी तो आफ़्ताब होंगे ॥
गर नहीं हम आज तो कल कामयाब होंगे ॥
दुरदुराओ मत हमें काग़ज़ के फूलों सा ;
देखना इक दिन हमीं अर्क़े गुलाब होंगे ॥
आज तक तो आबे ज़मज़म हैं मगर शायद ;
आपकी सुह्बत में हम कल तक शराब होंगे ॥
आज हम फाँकें चने तो तश्तरी में कल ;
क्या ज़रूरी है नहीं शामी कबाब होंगे ?
भेड़िये जो खोल में रहते हैं गायों के ;
इक न इक दिन देखना ख़ुद बेनक़ाब होंगे ॥
आज कोई भी नहीं फ़न का हमारे पर ;
एक दिन मद्दाह सब आली जनाब होंगे ॥
( आफ़्ताब=सूर्य
/ दुरदुराना=उपेक्षा करना / आबे ज़मज़म=पवित्र
जल / सुह्बत=संगति / मद्दाह=प्रशंसक )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Thursday, September 8, 2016
Sunday, September 4, 2016
ग़ज़ल : 213 - झूठी अफ़वाहें फैलाते हैं लोग ?
इश्क़ किया करने वाले ग़म ही पाते हैं लोग ॥
जानूँ
न क्यों झूठी अफ़वाहें फैलाते हैं लोग ?
मैं
तो मोहब्बत में ग़म खाकर भी चुप रहता मस्त ;
दोस्त
मज़े चख-चख कर भी क्यों चिल्लाते हैं लोग ?
जह्र
था उसमें जो खा बैठे सुनकर कितने हाय ;
मान
के सच , सचमुच दहशत में मर जाते हैं लोग ॥
कुछ
तो रखा करते ममियों का भी ज़िंदों सा ख़्याल ;
और
कई जीते जी ज़िंदे मरवाते हैं लोग ॥
मैं
तो सहारा ले तिनकों का भी आ बैठूँ पार ;
जानूँ
न कैसे कश्ती थामें बह जाते हैं लोग ॥
-डॉ.
हीरालाल प्रजापति
Saturday, September 3, 2016
Thursday, September 1, 2016
ग़ज़ल : 212 - ज़िंदगी इतनी जल रही होगी ॥
ज़िंदगी इतनी जल रही होगी ॥
मौत सिल सी भी गल रही होगी ॥
वो उसे दे रहा दग़ा होगा ,
वो उसे कसके छल रही होगी ॥
रेंग अब भी वो चुप रहा होगा ,
चीख़-चिल्ला वो चल रही होगी ॥
बढ़ रहा होगा कोई महलों में ,
कोई कुटिया में पल रही होगी ॥
अपने साँचे में मुझको गढ़ फिर वो ,
मेरे साँचे में ढल रही होगी ॥
उसको तक-तक बहुत जो शर्मायी ,
उसकी महबूबा कल रही होगी ॥
जिसको वह गीत जैसा गाता था ,
वह ज़रूर इक ग़ज़ल रही होगी ॥
रेगमालों पे दौड़ने वाली ,
काई पे चल फिसल रही होगी ॥
भर बुढ़ापे में उसकी छाती पर ,
ज़िंदगी मूँग दल रही होगी ॥
मारके मुझको देखना जाकर ,
हाथ अपने वो मल रही होगी ॥
अपने बच्चों को ख़ुद उबलती माँ ,
पंखा गर्मी में झल रही होगी ॥
पूछता था वो क्यों सवाल उससे ,
उसका शायद वो हल रही होगी ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Subscribe to:
Posts (Atom)
मुक्तक : 948 - अदम आबाद
मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...
