Tuesday, October 22, 2024

चश्मा उतारकर देखो

 

नाव से और न पुल से बल्कि कभी , वो नदी तैर पारकर देखो ।।

ख़ुद पे जो गर्द का मुलम्मा है , वो खुरचकर बुहारकर देखो ।।

मन की ऑंखों से दूर से भी साफ़ , अपना दीदार वो कराता है ,

उसको जी भरके देखना हो तो , अपना चश्मा उतारकर देखो ।।

-डाॅ. हीरालाल प्रजापति 

Monday, October 21, 2024

चश्मा

 

जलते हुए मरुस्थल लगते थे मुझको गीले ।।
गहरे से गहरे गड्ढे दिखते थे उॅंचे टीले ।।
सारे हरे - हरे ही चश्मे से दिख रहे थे ,
चश्मा उतारकर जब देखा तो सब थे पीले ।।
-डाॅ. हीरालाल प्रजापति 


Friday, October 4, 2024

मुक्तक

 दरारों से ज्यों वर्जित दृश्य ऑंखें फाड़ तकते हैं ।।

यों ज्यों कोई व्यक्तिगत दैनंदनी चोरी से पढ़ते हैं ।।

कि ज्यों कोई परीक्षा में नकल करने से डरता है ,

कुछ ऐसे ढंग से एकांत में हम उससे मिलते हैं ।।

-डाॅ. हीरालाल प्रजापति 

Tuesday, September 17, 2024

ग़ज़ल

 


लगे सूरत से बस मासूम वैसे ख़ूब शातिर है ।।

वो दिखता पैरहन से भर मुसल्माॅं वर्ना काफ़िर है ।।

तुम्हें लगता नहीं करता वो ऐसे-वैसे कोई काम ,

हक़ीक़त में वो बस ऐसे ही कामों का तो माहिर है ।।

मेरी नज़रों में ऐसा ख़ुदग़रज़ अब तक नहीं आया ,

जो जब भी कुछ करे तो बस करे अपनी ही ख़ातिर है ।।

वो इक चट्टान का लोहे सरीखा था कभी पत्थर ,

मैं हैराॅं हूॅं वही गुमनाम अब मशहूर शाइर है ।।

किसी सूरत में उसका दिल न मुझ पर आएगा फिर भी ,

मेरा ये दिल उसी उस पर चले जाने को हाज़िर है ।।

वो रोज़ाना इरादा भागने का शहर का  करता ,

ये उस जंगल के गीदड़ का यक़ीनन वक़्त ए आख़िर है ।।

-डाॅ. हीरालाल प्रजापति 


Sunday, September 15, 2024

ग़ज़ल

 








न होता तू कोई अजगर घिसटता केंचुआ होता ।।

तेरे पीछे हिलाता दुम न फिर मैं घूमता होता ।।

जो तू होता बला का ख़ूबसूरत तो यक़ीनन बस ,

तुझे कैसे करूॅं हासिल यही सब सोचता होता ।।

न होती तुझको दिलचस्पी मेरी बातों में तो तुझसे , 

मुख़ातिब होता भी तो लब न अपने खोलता होता ।।

अगर हक़ दे दिया होता मुझे दीदार का तूने ,

तो क्यों छुपकर दरारों से तुझे मैं देखता होता ।।

न दी होती जो तूने बद्दुआ बर्बाद होने की ,

मैं क्यों आकर किनारे पर नदी के डूबता होता ?

न बदले होंगे तेरे वो बुरे हालात ही वर्ना ,

अभी तक तो तू सच मिट्टी से सोना बन गया होता ।।

न की होती जो तूने दम ब दम धोखाधड़ी मुझसे ,

मैं अपनी ज़िंदगी रहते न तुझे बेवफ़ा होता ।।

-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Thursday, September 12, 2024

ग़ज़ल

 

ग़म न उतना उनके दिल से दूर होने का हुआ ।।

ऑंख से गिरके जो चकनाचूर होने का हुआ ।।

अपने आज़ू-बाज़ू वाले ही न पहचानें हैं जब ,

फिर कहाॅं मतलब कोई मशहूर होने का हुआ ?

एक उम्दा बन गया शा'इर यही बस फ़ाइदा ,

इश्क़ में उनके मेरे रंजूर होने का हुआ ।।

और कुछ होता तो शायद मैं नहीं बनता शराब ,

मेरा ये अंजाम तो अंगूर होने का हुआ ।।

ख़ाकसारी ने किया जितना मेरा नुकसान सच ,

उससे बेहद कम मुझे मग़रूर होने का हुआ !!

जो न करना था किया , पाना था जो वो खो दिया ,

इस क़दर घाटा मेरे मजबूर होने का हुआ ।।

-डाॅ. हीरालाल प्रजापति 

 


Sunday, September 8, 2024

ग़ज़ल

 


                                    बड़े प्यार से प्यार अगर कीजिएगा , 

तो पल भर नहीं उम्र भर कीजिएगा।।

ख़ुदारा ख़बर कुछ भी उनकी मिले तो ,

मुझे सबसे पहले ख़बर कीजिएगा ।।

बमुश्किल निकाला है तुमको नज़र से ,

न हॅंसते हुए दिल में घर कीजिएगा ।।

नहीं चाहकर भी तुम्हें चाह बैठूॅं ,

कुछ अपना यूॅं मुझ पर असर कीजिएगा ।।

भले सख़्त नफ़रत से लेकिन क़सम से ,

कभी मेरी जानिब नज़र कीजिएगा ।।

चिकनाई पर से गुज़रना पड़े तो ,

कभी पाॅंव अपने न पर कीजिएगा ।।

मिली है जो रो-रो के ये ज़िंदगी तो ,

इसे हॅंसते-हॅंसते बसर कीजिएगा ।।

-डॉ. हीरालाल प्रजापति

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...