लगे सूरत से बस मासूम वैसे ख़ूब शातिर है ।।
वो दिखता पैरहन से भर मुसल्माॅं वर्ना काफ़िर है ।।
तुम्हें लगता नहीं करता वो ऐसे-वैसे कोई काम ,
हक़ीक़त में वो बस ऐसे ही कामों का तो माहिर है ।।
मेरी नज़रों में ऐसा ख़ुदग़रज़ अब तक नहीं आया ,
जो जब भी कुछ करे तो बस करे अपनी ही ख़ातिर है ।।
वो इक चट्टान का लोहे सरीखा था कभी पत्थर ,
मैं हैराॅं हूॅं वही गुमनाम अब मशहूर शाइर है ।।
किसी सूरत में उसका दिल न मुझ पर आएगा फिर भी ,
मेरा ये दिल उसी उस पर चले जाने को हाज़िर है ।।
वो रोज़ाना इरादा भागने का शहर का करता ,
ये उस जंगल के गीदड़ का यक़ीनन वक़्त ए आख़िर है ।।
-डाॅ. हीरालाल प्रजापति