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Sunday, September 23, 2018
Saturday, September 22, 2018
ग़ज़ल : 268 - मेहँदियाँ
मुझसे तुम दो ही पल भर सटी रह गयीं ।।
सारी दुनिया की आँखें फटी रह गयीं ।।
मैं गुटक कर ख़ुशी कद्दू होता गया ,
तुम चबा फ़िक्र को बरबटी रह गयीं ।।
चाहकर बन सका मैं न सर्कस का नट ,
तुम नहीं चाह कर भी नटी रह गयीं ।।
और सब कुछ गया भूल मैं अटपटी ,
चंद बातें तुम्हारी रटी रह गयीं ।।
इक भी दुश्मन न अपना बचा जंग में ,
इस दफ़ा लाशें बस सरकटी रह गयीं ।।
तेरे हाथों में लगने की ज़िद पर अड़ी ,
मेहँंदियाँ कितनी ही बस बटी रह गयीं ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Friday, September 21, 2018
Sunday, September 16, 2018
गीत : 50 - हाथ काँधों पर नहीं
हाथ काँँधों पर नहीं गर्दन से सर ग़ायब ,
पैर भी टूटे हुए हैं फिर भी ज़िंदा हूँँ !!
पीठ पर मेरे न इक पर लेकिन आँँखों में ,
ख़्वाब उड़ानों के लिए जीता परिंदा हूँँ !!
हाथ में लेकर चिरागों क्या मशालों को ,
ढूँँढने पर भी न पाओगे कहीं मुझसा ।।
मैं बुरा हूँँ या भला हूँँ इस ज़माने में ,
दूसरा हरगिज़ यहाँँ कोई नहीं मुझसा ।।
क्यों हूँँ मैं ? जानूँँ न मैं इतना मगर तय है ,
मैं अजब हूँँ ,मैं ग़ज़ब हूं ,मैं चुनिंदा हूँँ ।।
हाथ काँँधों पर नहीं गर्दन से सर ग़ायब ,
पैर भी टूटे हुए हैं फिर भी ज़िंदा हूँँ !!
पीठ पर मेरे न इक पर लेकिन आँँखों में ,
ख़्वाब उड़ानों के लिए जीता परिंदा हूँँ !!
वो ज़माना क्या हुआ जब मुझ से जुड़कर तुम ,
चाहते थे शह्र में मशहूर हो जाऊँँ ?
कर रहे हो रात दिन ऐसे जतन अब क्यों ,
मैं तुम्हारी ज़िंदगी से दूर हो जाऊँँ ?
मत रगड़ , धो-धो मिटाने की करो कोशिश ,
दाग़ माथे का नहीं मैं एक बिंदा हूँँ ।।
हाथ काँँधों पर नहीं गर्दन से सर ग़ायब ,
पैर भी टूटे हुए हैं फिर भी ज़िंदा हूँँ !!
पीठ पर मेरे न इक पर लेकिन आँँखों में ,
ख़्वाब उड़ानों के लिए जीता परिंदा हूँँ !!
( पर = पंख ; बिंदा = माथे पर लगाने वाली बड़ी गोल बिंदी )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Sunday, September 2, 2018
ग़ज़ल : 267 - तोप से बंदूक
तोप से बंदूक से इक तीर हो बैठा ।।
नौजवानी में ही साठा पीर हो बैठा ।।
चुप रहा तो बज गया दुनिया में गूँँगा वो ,
कह उठा तो सीधे ग़ालिब-मीर हो बैठा ।।
बनके इक सय्याद रहता था वो जंगल में ,
आके दर्याओं में माहीगीर हो बैठा ।।
हिज़्र में दिन-रात सोते-जागते फिरते ,
रटते-रटते हीर...राँँझा हीर हो बैठा ।।
जो कहा करता था इश्क़ आज़ाद करता है ,
उसके ही पाँँवों की वह ज़ंजीर हो बैठा ।।
इस क़दर उसको सताया था ज़माने ने ,
वह छड़ी से लट्ठ फिर शमशीर हो बैठा ।।
उसने मर्यादा को अपनाया तो सच मानो ,
वह निरा रावण...खरा रघुवीर हो बैठा ।।
( साठा=साठ वर्ष का ,पीर=वृद्ध , सय्याद=चिड़ीमार ,
दर्या=नदी ,माहीगीर=मछली पकड़ने वाला ,हिज़्र=विरह ,
शमशीर=तलवार ,रघुवीर=रामचंद्र )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
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मुक्तक : 948 - अदम आबाद
मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...
