पथरीली सरज़मीं पर
कर करके गहरे गड्ढे ,
फिर से न आएँ बाहर
ऐसे मैं गाड़कर रे।।
हरगिज़ न कोई दर्जी
फिर से जो सिल सके ,
कुछ इस तरह के टुकड़े
टुकड़ों में फाड़कर रे ।।
कुछ आपके वहाँ का ,
कुछ मेरे भी यहाँ का ,
जानूँ न कैसा-कैसा ,
जाने कहाँ-कहाँ का ?
आँखों से अपनी चुन-चुन
देखो मैं बेच घोड़े ,
सपनों का सारा कचरा
सोता हूँ झाड़ कर रे।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
10 comments:
जय मां हाटेशवरी.......
आप को बताते हुए हर्ष हो रहा है......
आप की इस रचना का लिंक भी......
21/07/2019 को......
पांच लिंकों का आनंद ब्लौग पर.....
शामिल किया गया है.....
आप भी इस हलचल में......
सादर आमंत्रित है......
अधिक जानकारी के लिये ब्लौग का लिंक:
https://www.halchalwith5links.blogspot.com
धन्यवाद
धन्यवाद। कुलदीप ठाकुर जी ।
जी नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (21 -07-2019) को "अहसासों की पगडंडी " (चर्चा अंक- 3403) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
वाह बहुत सुंदर।
बहुत सुन्दर...
वाह!!!
सुन्दर रचना
धन्यवाद । अनीता सैनी जी ।
धन्यवाद । मन की वीणा जी ।
धन्यवाद । सुधा देवरानी जी ।
धन्यवाद । ओंकार जी ।
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