Friday, July 19, 2019

मुक्तक : 904 - फाड़कर


पथरीली सरज़मीं पर 
कर करके गहरे गड्ढे ,
फिर से न आएँ बाहर 
ऐसे मैं गाड़कर रे।।
हरगिज़ न कोई दर्जी 
फिर से जो सिल सके ,
कुछ इस तरह के टुकड़े 
टुकड़ों में फाड़कर रे ।।
कुछ आपके वहाँ का , 
कुछ मेरे भी यहाँ का ,
जानूँ न कैसा-कैसा ,
जाने कहाँ-कहाँ का ?
आँखों से अपनी चुन-चुन 
देखो मैं बेच घोड़े ,
सपनों का सारा कचरा 
सोता हूँ झाड़ कर रे।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

10 comments:

kuldeep thakur said...


जय मां हाटेशवरी.......
आप को बताते हुए हर्ष हो रहा है......
आप की इस रचना का लिंक भी......
21/07/2019 को......
पांच लिंकों का आनंद ब्लौग पर.....
शामिल किया गया है.....
आप भी इस हलचल में......
सादर आमंत्रित है......

अधिक जानकारी के लिये ब्लौग का लिंक:
https://www.halchalwith5links.blogspot.com
धन्यवाद

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद। कुलदीप ठाकुर जी ।

अनीता सैनी said...

जी नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (21 -07-2019) को "अहसासों की पगडंडी " (चर्चा अंक- 3403) पर भी होगी।

--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी

मन की वीणा said...

वाह बहुत सुंदर।

Sudha Devrani said...

बहुत सुन्दर...
वाह!!!

Onkar said...

सुन्दर रचना

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद । अनीता सैनी जी ।

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद । मन की वीणा जी ।

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद । सुधा देवरानी जी ।

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद । ओंकार जी ।

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...