Sunday, January 1, 2017

ग़ज़ल : 222 - वो परिंदे



जितना आँखों से उसको हटाता गया ।।
उतना दिल में वो मेरे समाता गया ।।1।।
यों वो आया था देने तसल्ली मगर ,
जाते - जाते मुझे फिर रुलाता गया ।।2।।
क्या कहूँ रहनुमा ही मेरी राह में ,
जाल बुन-बुन के गिन-गिन बिछाता गया ।।3।।
वो परिंदे जो मुश्किल से फाँसे गए ,
सारे सय्यादों के वो छुड़ाता गया ।।4।।
एक ही आग के दो असर देखिए ,
मैं बुझाता रहा ; वो जलाता गया ।।5।।
कैसे रहता सलामत मेरे पास कुछ ,
मैं बनाता रहा वो मिटाता गया ।।6।।
इस क़दर मैंने ग़ुस्सा दिलाया उसे ,
गालियाँ ; गाने वाला सुनाता गया ।।7।।
रौ में इक दिन नशे की वो बहकर मुझे ,
हर दबा राज़ दिल का बताता गया ।।8।।
पेट भरने की ख़ातिर वो मुफ़्लिस चने ,
रोज़ लोहे के चुन – चुन चबाता गया ।।9।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

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