वो दैर जाता कभी दिखे तो
कभी हरम को ॥
भुला के आता हूँ मैक़दे में
मैं अपने ग़म को ॥
वो मानता कब ख़ुदा किसी को
सिवा ख़ुदा के ,
मैं इश्क़ में मानूँ अपना
रब अपने ही सनम को ॥
वो रह्म दिल है मैं कैसे
मानूँ तरस रहा जब ,
कई ज़मानों से उसके मुझ पर
किसी करम को ॥
मैं इंतज़ार उसका करते - करते
थका हूँ इतना ,
कि सच लगे है पहुँच न जाऊँ
अभी अदम को ॥
हमें मिटाकर मिली मसर्रत
उन्हे किलो भर ,
मिली हैं मिटकर के उनसे खुशियाँ
टनों से हमको ॥
हमेशा कमज़ोरियों पे उसकी
नज़र पड़ी है ,
मेरी निगाहों ने जब भी देखा
तो देखा दम को ॥
न होता उससे जो दिल का रिश्ता
तो झेलता क्या ,
मैं उसके हँस-हँस के अपने
दिल पे किये सितम को ?
जो माँगता हूँ वो दे-दे
मुझको मैं मान लूँगा ,
ज़ियादा से भी ज़ियादा तेरे
ज़ियादा कम को ॥
( दैर =मंदिर , हरम =मस्जिद
,मैक़दे =मदिरालय , अदम = यमलोक )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
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