Wednesday, June 19, 2024

ग़ज़ल

 











पी-पीके ख़म्र मैंने जलाया बहुत जिगर ।।

आना न था क़रार सो आया न उम्र भर ।।

ईमान से वो करते थे जब मुझसे मोहब्बत ,

कहते थे मुझ में ऐब नहीं सिर्फ़ हैं हुनर ।।

रहता था उनकी ऑंख में हैरानगी तो ये ,

मुझ पर कभी न भूलके उनकी पड़ी नज़र ।।

हरगिज़ न वो मिलेंगे बख़ूबी ये था पता ,

जब तक मरा न उनको ढूॅंढता रहा मगर ।।

नश्शे में वह भले ही भले आदमी लगे ,

होशो हवास में वो मुझे सच लगे सुअर ।।

रह-रहके उसके साथ जब उससा ही हो गया ,

तब दी मुझे ये मुझसों ने तफ़्सील से ख़बर ।।

-डाॅ. हीरालाल प्रजापति

( जिगर=कलेजा / ख़म्र=मदिरा / तफ़्सील=विस्तार )

Saturday, June 1, 2024

ग़ज़ल

वो गर सख़्त ज़ख्मी मेरा दिल न करता ।।

तो पी-पीके मैं ख़ुद को ग़ाफ़िल न करता ।।

जो चेहरा करे उसका उतना उजाला ,

क़सम से कभी माह ए कामिल न करता ।।

हमेशा बनाता वो राई को पर्वत ,

कभी भी किसी ताड़ को तिल न करता ।।

वो कह देता लाइक़ बनूॅं उसके तो क्या ,

मैं उसके लिए ख़ुद को क़ाबिल न करता ?

किसी से मोहब्बत हुई ही कहाॅं थी ,

वगरना मैं क्या उसको हासिल न करता ?

अगर काम का उसके होता न मैं तो ,

मुझे ज़िन्दगी में वो शामिल न करता ।।

-डाॅ. हीरालाल प्रजापति 


मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...