तकने लगे हैं शौक़ से आईने अब अंधे ।।
गंजे अमीरुल-ऊमरा रखने लगे कंघे ।।1।।
जानूँ न वो कैसी बिना पर दौड़ते-उड़ते ,
ना पैर हैं उनके न उनकी पीठ पर पंखे ।।2।।
ये जायदादो मिल्क़ियत , माया , ख़ज़ाने सब ,
उनने जमा सचमुच किए कर-कर खरे धंधे ।।3।।
जितना बदन शफ़्फ़ाक़ है उनका कँवल सा वो ,
उतने ही हैं दिल के बुरे , नापाक औ' गंदे ।।4।।
ख़ुशियाँ हमेशा ही लगीं मानिंद ए फुट-इंच ,
ग़म लगे हमको प्रकाशी वर्ष से लंबे ।।5।।
मेहसूल भी देते जहाँ के लोग रो-रो कर ,
देंगे मदद के नाम पर क्या हँस के वो चंदे ?6।।
पीते नहीं कितने ही दारू बेचने वाले ,
मालिक न लेकिन कपड़ा मिल के रह सकें नंगे ।।7।।
उसका है जीने का तरीक़ा मुफ़्लिसों जैसा ,
कितने ख़ज़ानों पर मगर उसके गड़े झंडे ।।8।।
जब मानते ही तुम नहीं मौज़ूदगी रब की ,
क्यों बाँधते हो हाथ में ता'वीज़ औ' गंडे ।।9।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
5 comments:
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शनिवार 29 फरवरी 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
धन्यवाद । यशोदा अग्रवाल जी ।
धन्यवाद । मीना शर्मा जी ।
उम्दा ग़ज़ल।
अच्छी जानकारी !! आपकी अगली पोस्ट का इंतजार नहीं कर सकता!
greetings from malaysia
let's be friend
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