Friday, February 14, 2020

ग़ज़ल : 287 - भारी-भरकम



बाहर रेल की पटरी से भारी-भरकम ।।
अंदर बाँस से भी कुछ हल्के-फुल्के हम ।।1।।
थककर चूर हैं लेकिन ख़ुद को जाने क्यों ?
दिखलाते हैं हमेशा इकदम ताज़ादम ।।2।।
चेहरे से यूँ नदारद रखते हर पीड़ा ,
बस सब लोग समझ जाते हम हैं बेग़म ।।3।।
मैक़श से न कभी कहना मै को गंदी ,
उसका मक्का है मैख़ाना , दारू ज़मज़म ।।4।।
भागमभाग किया करते , सब है फिर भी ,
क्यों जीने की ही ख़ातिर होते हैं बेदम ।।5।।
कुछ ही अंधे करें मिल बातें चश्मों की ,
लँगड़े ख़्वाब में सब नाचें ना छम-छम-छम ।।6।।
पैसा बंद हुआ रुपया भी कमक़ीमत ,
महँगे सब तो हुए डॉलर , दीनारोदिरम ।।7।।
हैराँ हूँ हैं जनाज़े में शामिल लाखों ,
लेकिन दिखती नहीं इक की भी आँखें नम ।।8।।
माना पास नहीं अपने लेकिन ख़ुश हैं ,
जाएदाद , ज़मीं , सोना-चाँदी सी रक़म ।।9।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

7 comments:

Rohitas Ghorela said...

वाह
बहुत सुंदर गजल.
परेशानी छुपाये आज कल फिरता है हर कोई.

आइयेगा- प्रार्थना

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद । रोहितास जी ।

Nitish Tiwary said...

बहुत सुंदर ग़ज़ल।

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद । नितीश तिवारी जी ।

Onkar said...

बहुत सुन्दर

Jyoti khare said...

वाह
बहुत सुंदर

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद । ज्योति खरे जी ।

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