हीरा
हूँ मैं वो मुझको अच्छे से जानता है ॥
फिर
भी हमेशा मुझमें नर्मी तलाशता है ॥
जिस
कान ने न मुझको सुनने की ली क़सम है ,
मेरा
गला उसी को आवाज़ मारता है ॥
वह
कबसे आस्माँ में सूराख़ को बनाने ,
बेकार
में ही दिन भर पत्थर उछालता है ॥
मुझमें
बड़ी-बड़ी जो वो ख़ूबियाँ न देखे ,
चुन-चुन के छोटी-छोटी कमियाँ निकालता है ॥
रहता
वो चुप ही या फिर करता है बात ऐसे ,
जैसे ग़ुबार कोई अपना निकालता है ॥
-डॉ.
हीरालाल प्रजापति
No comments:
Post a Comment