Saturday, November 9, 2019

दीर्घ मुक्तक : 935 - सूरज


जो पकड़ पाता नहीं खरगोश का बच्चा ,
अपनी इक मुट्ठी में गज-ऊरज पकड़ डाला ।।
जो न गुब्बारा फुला सकता , बजाने को ,
आज उसने हाथ में तूरज पकड़ डाला ।।
आज तो जानूँ न क्या-क्या मुझसे हो बैठा ?
पत्थरों में फूल के मैं बीज बो बैठा ।
धूप में भी जो झुलस जाता है रात उसने ,
दोपहर का स्वप्न में सूरज पकड़ डाला ।।
( गज-ऊरज = बलिष्ठ हाथी , तूरज = तुरही जिसे उच्च शक्ति से फूँककर बजाया जाता है )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

7 comments:

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद । कुलदीप ठाकुर जी ।

Rohitas Ghorela said...

बहुत खूब।
जुगत लगाएं तो क्या नहीं होता।
मेरी नई पोस्ट पर स्वागत है👉👉 जागृत आँख 

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद । रोहितास जी ।

Ravindra Singh Yadav said...

जी नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (10 -11-2019) को "आज रामजी लौटे हैं घर" (चर्चा अंक- 3515) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित हैं….
**********************
रवीन्द्र सिंह यादव

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद । यादव जी ।

मन की वीणा said...

बहुत खूब उम्दा भाव।

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद । मन की वीणा जी ।

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...